जान-ए-जाँ मायूस मत हो हालत-ए-बाज़ार से
शायद अगले साल तक दीवाना-पन मिलने लगे
Wasi Shah
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दश्त में रात बनाते हुए डरता हूँ मैं
वो तो कहिए आप की ख़ुशबू ने पहचाना मुझे
रेल देखी है कभी सीने पे चलने वाली
डूबने वाला ही था साहिल बरामद कर लिया
बदन ने कितनी बढ़ा ली है सल्तनत अपनी
किसी के साए किसी की तरफ़ लपकते हुए
खिल रहे हैं मुझ में दुनिया के सभी नायाब फूल
जाने किस उम्मीद पे छोड़ आए थे घर-बार लोग
तबाह ख़ुद को उसे ला-ज़वाल करते हैं
कुछ न था मेरे पास खोने को
लिपटा भी एक बार तो किस एहतियात से
आँख खुल जाए तो घर मातम-कदा बन जाएगा