बदन ने कितनी बढ़ा ली है सल्तनत अपनी
बसे हैं इश्क़ ओ हवस सब इसी इलाक़े में
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सुनाई देती है सात आसमाँ में गूँज अपनी
अपनी आहट पे चौंकता हूँ मैं
चाहता हूँ मैं तशद्दुद छोड़ना
बताऊँ कैसे कि सच बोलना ज़रूरी है
अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़
दूर जितना भी चला जाए मगर
रात लम्बी थी सितारा मिरा ताजील में था
वो तंज़ को भी हुस्न-ए-तलब जान ख़ुश हुए
मौसम-ए-वज्द में जा कर मैं कहाँ रक़्स करूँ
रूह की थाप न रोको कि क़यामत होगी
एक दिन दोनों ने अपनी हार मानी एक साथ
मैं अगर तुम को मिला सकता हूँ महर-ओ-माह से