वो तंज़ को भी हुस्न-ए-तलब जान ख़ुश हुए
उल्टा पढ़ा गया, मिरा पैग़ाम और था
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कभी लिबास कभी बाल देखने वाले
इस बार इंतिज़ाम तो सर्दी का हो गया
अब इसे ग़र्क़ाब करने का हुनर भी सीख लूँ
आँख खुल जाए तो घर मातम-कदा बन जाएगा
आम मुआफ़ी के लिए
बरसों पुराने ज़ख़्म को बे-कार कर दिया
चाहता हूँ मैं तशद्दुद छोड़ना
भरे हुए हैं अभी रौशनी की दौलत से
वो साँप जिस ने मुझे आज तक डसा भी नहीं
सारे चक़माक़-बदन आए थे तय्यारी से
कुछ न था मेरे पास खोने को
तबाह ख़ुद को उसे ला-ज़वाल करते हैं