दूर जितना भी चला जाए मगर
चाँद तुझ सा तो नहीं हो सकता
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इस बार इंतिज़ाम तो सर्दी का हो गया
दिल दे न दे मगर ये तिरा हुस्न-ए-बे-मिसाल
दिन-ब-दिन घटती हुई उम्र पे नाज़िल हो जाए
अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़
फूल वो रखता गया और मैं ने रोका तक नहीं
बदन ने कितनी बढ़ा ली है सल्तनत अपनी
हर मुत्तक़ी को इस से सबक़ लेना चाहिए
फ़क़ीर लोग रहे अपने अपने हाल में मस्त
दिल भी एहसासात भी जज़्बात भी
सारे चक़माक़-बदन आया था तय्यारी से
हैं लापता ज़माने से सारे के सारे ख़्वाब