दिल दे न दे मगर ये तिरा हुस्न-ए-बे-मिसाल
वापस न कर फ़क़ीर को आख़िर बदन तो है
Ahmad Faraz
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आसमानों से ज़मीं की तरफ़ आते हुए हम
बरसों पुराने ज़ख़्म को बे-कार कर दिया
हमें बुरा नहीं लगता सफ़ेद काग़ज़ भी
एक दिन दोनों ने अपनी हार मानी एक साथ
अच्छा इश्क़
रात लम्बी थी सितारा मिरा ताजील में था
इश्क़ क्या है ख़ूबसूरत सी कोई अफ़्वाह बस
रूह की थाप न रोको कि क़यामत होगी
किनारे पाँव से तलवार कर दी
दिल भी एहसासात भी जज़्बात भी
सुनाई देती है सात आसमाँ में गूँज अपनी
अपनी आहट पे चौंकता हूँ मैं