डर डर के जागते हुए काटी तमाम रात
गलियों में तेरे नाम की इतनी सदा लगी
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सारे चक़माक़-बदन आए थे तय्यारी से
पहनते ख़ाक हैं ख़ाक ओढ़ते बिछाते हैं
इश्क़ का मतलब किसे मालूम था
अपनी आहट पे चौंकता हूँ मैं
रो रो के लोग कहते थे जाती रहेगी आँख
तबाह कर तो दूँ ज़ाहिर-परस्त दुनिया को
अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़
फ़लक का थाल ही हम ने उलट डाला ज़मीं पर
वो अपने शहर-ए-फ़राग़त से कम निकलता है
सब अपने अपने ख़ुदाओं में जा के बैठ गए
वो तो कहिए आप की ख़ुशबू ने पहचाना मुझे