इश्क़ का मतलब किसे मालूम था
जिन दिनों आए थे हम दिल हार के
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मैं अगर तुम को मिला सकता हूँ महर-ओ-माह से
वो अपने शहर-ए-फ़राग़त से कम निकलता है
तबाह ख़ुद को उसे ला-ज़वाल करते हैं
इश्क़ में सच्चा था वो मेरी तरह
बरसों पुराने ज़ख़्म को बे-कार कर दिया
वो साँप जिस ने मुझे आज तक डसा भी नहीं
आसमानों से ज़मीं की तरफ़ आते हुए हम
तिरे बग़ैर कोई और इश्क़ हो कैसे
दिन-ब-दिन घटती हुई उम्र पे नाज़िल हो जाए
सैर-ए-दुनिया को जाते हो जाओ
चख लिया उस ने प्यार थोड़ा सा