चख लिया उस ने प्यार थोड़ा सा
और फिर ज़हर कर दिया है मुझे
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सहरा ओ शहर सब से आज़ाद हो रहा हूँ
रेल देखी है कभी सीने पे चलने वाली
सारे चक़माक़-बदन आए थे तय्यारी से
रूह की थाप न रोको कि क़यामत होगी
जाने किस उम्मीद पे छोड़ आए थे घर-बार लोग
आम मुआफ़ी के लिए
नाम ही ले ले तुम्हारा कोई
नाम से उस के पुकारूँ ख़ुद को
पेश लफ़्ज़ एक मोहब्बत नामे का
भरे हुए हैं अभी रौशनी की दौलत से
मुझ को भी पहले-पहल अच्छे लगे थे ये गुलाब
अपनी आहट पे चौंकता हूँ मैं