नाम ही ले ले तुम्हारा कोई
दोनों हाथों से लुटाऊँ ख़ुद को
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फ़लक का थाल ही हम ने उलट डाला ज़मीं पर
सड़क के दोनों तरफ़ ख़ैरियत है
बदन ने कितनी बढ़ा ली है सल्तनत अपनी
मौसम-ए-वज्द में जा कर मैं कहाँ रक़्स करूँ
पहनते ख़ाक हैं ख़ाक ओढ़ते बिछाते हैं
बड़े घरों में रही है बहुत ज़माने तक
दिल दे न दे मगर ये तिरा हुस्न-ए-बे-मिसाल
रोक दो ये रौशनी की तेज़ धार
क़ाएदे बाज़ार के इस बार उल्टे हो गए
आसमानों से ज़मीं की तरफ़ आते हुए हम
इस बार इंतिज़ाम तो सर्दी का हो गया
आइने का सामना अच्छा नहीं है बार बार