मुझ को भी पहले-पहल अच्छे लगे थे ये गुलाब
टहनियाँ झुकती हुईं और तितलियाँ उड़ती हुईं
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ज़रा ये हाथ मेरे हाथ में दो
दिन को रुख़्सत किया बहाने से
पूछो कि उस के ज़ेहन में नक़्शा भी है कोई
तक़वा
सुना है शोर से हल होंगे सारे मसअले इक दिन
रेल देखी है कभी सीने पे चलने वाली
रो रो के लोग कहते थे जाती रहेगी आँख
भीक
हम जैसों ने जान गँवाई पागल थे
हम भी माचिस की तीलियों से थे
वो मेरे लम्स से महताब बन चुका होता
लिपटा भी एक बार तो किस एहतियात से