ज़रा ये हाथ मेरे हाथ में दो
मैं अपनी दोस्ती से थक चुका हूँ
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कबूतरों में ये दहशत कहाँ से दर आई
एक करवट पे रात क्या कटती
फ़क़ीर लोग रहे अपने अपने हाल में मस्त
दूर जितना भी चला जाए मगर
इंसानियत के ज़ोम ने बर्बाद कर दिया
इस बार इंतिज़ाम तो सर्दी का हो गया
बताऊँ कैसे कि सच बोलना ज़रूरी है
बदन ने कितनी बढ़ा ली है सल्तनत अपनी
फ़्रीज़र में रक्खी शाम
डूबने वाला ही था साहिल बरामद कर लिया
पाँव के नीचे से पहले खींच ली सारी ज़मीं