पाँव के नीचे से पहले खींच ली सारी ज़मीं
प्यार से फिर नाम मेरा शाह-ए-आलम रख दिया
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ये ख़्वाब कौन दिखाने लगा तरक़्क़ी के
ख़ुदा मुआफ़ करे ज़िंदगी बनाते हैं
आँख खुल जाए तो घर मातम-कदा बन जाएगा
ज़रा ये हाथ मेरे हाथ में दो
लिपटा भी एक बार तो किस एहतियात से
बरसों पुराने ज़ख़्म को बे-कार कर दिया
इस बार इंतिज़ाम तो सर्दी का हो गया
डर डर के जागते हुए काटी तमाम रात
हम बहुत पछताए आवाज़ों से रिश्ता जोड़ कर
एक आयत पढ़ के अपने-आप पर दम कर दिया
मैं अपने साए में बैठा था कितनी सदियों से
आम मुआफ़ी के लिए