मैं अपने साए में बैठा था कितनी सदियों से
तुम्हारी धूप ने दीवार तोड़ दी मेरी
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मिरा कुछ रास्ते में खो गया है
बताऊँ कैसे कि सच बोलना ज़रूरी है
मस्जिदों में क़त्ल होने की रिवायत है यहाँ
नए चराग़ की लौ पाँव से लिपटती है
अब ऐसी वैसी मोहब्बत को क्या सँभालूँ मैं
क़ाएदे बाज़ार के इस बार उल्टे हो गए
दश्त में रात बनाते हुए डरता हूँ मैं
इंसानियत के ज़ोम ने बर्बाद कर दिया
ऐसी ही एक शब में किसी से मिला था दिल
किसी के साए किसी की तरफ़ लपकते हुए
अब इसे ग़र्क़ाब करने का हुनर भी सीख लूँ