दिन को रुख़्सत किया बहाने से
रात थी वो मिरे सितारे की
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किसी के साए किसी की तरफ़ लपकते हुए
ख़ुदा मुआफ़ करे सारे मुंसिफ़ों के गुनाह
मोहब्बत वाले हैं कितने ज़मीं पर
कुछ न था मेरे पास खोने को
सारे चक़माक़-बदन आए थे तय्यारी से
एक आयत पढ़ के अपने-आप पर दम कर दिया
अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़
मैं अपने साए में बैठा था कितनी सदियों से
पूछो कि उस के ज़ेहन में नक़्शा भी है कोई
हैं लापता ज़माने से सारे के सारे ख़्वाब
अपनी आहट पे चौंकता हूँ मैं