ख़ुदा मुआफ़ करे सारे मुंसिफ़ों के गुनाह
हम ही ने शर्त लगाई थी हार जाने की
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पूछो कि उस के ज़ेहन में नक़्शा भी है कोई
ग़म इस क़दर नहीं थे ढले जितने शेर में
मैं ख़ानक़ाह-ए-बदन से उदास लौट आया
डर डर के जागते हुए काटी तमाम रात
तबाह ख़ुद को उसे ला-ज़वाल करते हैं
एक करवट पे रात क्या कटती
सब अपने अपने ख़ुदाओं में जा के बैठ गए
डूबने वाला ही था साहिल बरामद कर लिया
कुछ न था मेरे पास खोने को
इंसानियत के ज़ोम ने बर्बाद कर दिया
दिल भी एहसासात भी जज़्बात भी
तिरे बग़ैर कोई और इश्क़ हो कैसे