ग़म इस क़दर नहीं थे ढले जितने शेर में
दौलत बनाई ख़ूब मता-ए-क़लील से
Habib Jalib
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Anwar Masood
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Gulzar
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Jaun Eliya
Mir Taqi Mir
Rahat Indori
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सब अपने अपने ख़ुदाओं में जा के बैठ गए
हैं लापता ज़माने से सारे के सारे ख़्वाब
तुम तो सर्दी की हसीं धूप का चेहरा हो जिसे
हम को डरा कर, आप को ख़ैरात बाँट कर
किसी के साए किसी की तरफ़ लपकते हुए
आसमानों से ज़मीं की तरफ़ आते हुए हम
मुझे कुछ याद आता है
एक करवट पे रात क्या कटती
भीक
तिरे बग़ैर कोई और इश्क़ हो कैसे
रूह की थाप न रोको कि क़यामत होगी