रोक दो ये रौशनी की तेज़ धार
मेरी मिट्टी में गुँधी है रात भी
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मुझ को भी पहले-पहल अच्छे लगे थे ये गुलाब
चख लिया उस ने प्यार थोड़ा सा
तक़वा
पाँव के नीचे से पहले खींच ली सारी ज़मीं
फिर इस मज़ाक़ को जम्हूरियत का नाम दिया
सैर-ए-दुनिया को जाते हो जाओ
मोहब्बत वाले हैं कितने ज़मीं पर
किसी के साए किसी की तरफ़ लपकते हुए
मौसम-ए-वज्द में जा कर मैं कहाँ रक़्स करूँ
मिरी ख़ुशियों से वो रिश्ता है तुम्हारा अब तक
कभी लिबास कभी बाल देखने वाले
दिन-ब-दिन घटती हुई उम्र पे नाज़िल हो जाए