आसूदगी ने थपकियाँ दे कर सुला दिया
घर की ज़रूरतों ने जगाया तो डर लगा
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ऐसे भी कुछ लम्हे यारो आएँगे
माना कि ज़लज़ला था यहाँ कम बहुत ही कम
अंधेरे ढूँडने निकले खंडर क्यूँ
नीम के पत्तों का ज़ख़्मों को धुआँ दे दीजिए
एहसास-ए-बे-तलब का ही इल्ज़ाम दो हमें
रात के गुम्बद में यादों का बसेरा हो गया है
ख़्वाहिशों की आँच में तपते बदन की लज़्ज़तें हैं
सुर्ख़ मौसम की कहानी तो पुरानी हो गई
आस्तीनों में छुपा कर साँप भी लाए थे लोग
फ़ज़ा में कर्ब का एहसास घोलती हुई रात
अंधेरे बंद कमरों में पड़े थे