ख़्वाहिशों की आँच में तपते बदन की लज़्ज़तें हैं
और वहशी रात है गुमराहियाँ सर पर उठाए
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एहसास-ए-बे-तलब का ही इल्ज़ाम दो हमें
ममता-भरी निगाह ने रोका तो डर लगा
अंधेरे बंद कमरों में पड़े थे
कोई दस्तक न कोई आहट थी
फ़िक्र कम बयान कम
आस्तीनों में छुपा कर साँप भी लाए थे लोग
बे-तअल्लुक़ रूह का जब जिस्म से रिश्ता हुआ
हम दश्त-ए-बे-कराँ की अज़ाँ हो गए तो क्या
माना कि ज़लज़ला था यहाँ कम बहुत ही कम
नशात-ए-दर्द के मौसम में गर नमी कम है
रात हम ने जुगनुओं की सब दुकानें बेच दीं