फ़िक्र कम बयान कम
फ़िक्र कम बयान कम
रह गई ज़बान कम
धूप में ढलान कम
रौशनी में जान कम
बारिशों की इंतिहा
छत पे आसमान कम
ज़लज़लों ने कर दिए
शहर के मकान कम
ख़ामुशी ही ख़ामुशी
मुर्ग़ की अज़ान कम
धूप शोला-बार है
छाँव का गुमान कम
जिस्म में तनाव है
हड्डियों में जान कम
'रिंद' अब सुकूँ कहाँ
है अज़ाब जान कम
Your Thoughts and Comments