कोई दस्तक न कोई आहट थी
मुद्दतों वहम के शिकार थे हम
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अंधेरे ढूँडने निकले खंडर क्यूँ
रौशनी भर ख़ला पे बार थे हम
माना कि ज़लज़ला था यहाँ कम बहुत ही कम
ममता-भरी निगाह ने रोका तो डर लगा
अंधेरे बंद कमरों में पड़े थे
फ़ज़ा में कर्ब का एहसास घोलती हुई रात
नीम के पत्तों का ज़ख़्मों को धुआँ दे दीजिए
चाहता है दिल किसी से राज़ की बातें करे
आसूदगी ने थपकियाँ दे कर सुला दिया
हम दश्त-ए-बे-कराँ की अज़ाँ हो गए तो क्या
सुर्ख़ मौसम की कहानी तो पुरानी हो गई