सुर्ख़ मौसम की कहानी तो पुरानी हो गई
खुल गया मौसम तो सारे शहर में चर्चा हुआ
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ख़्वाहिशों की आँच में तपते बदन की लज़्ज़तें हैं
रात के गुम्बद में यादों का बसेरा हो गया है
आस्तीनों में छुपा कर साँप भी लाए थे लोग
ऐसे भी कुछ लम्हे यारो आएँगे
पेश-ए-मंज़र जो तमाशे थे पस-ए-मंज़र भी थे
साज़िशों की भीड़ में तारीकियाँ सर पर उठाए
अंधेरे ढूँडने निकले खंडर क्यूँ
रात हम ने जुगनुओं की सब दुकानें बेच दीं
उफ़ुक़ पे दूधिया साया जो पाँव धरने लगा
आसूदगी ने थपकियाँ दे कर सुला दिया
कोई दस्तक न कोई आहट थी
ममता-भरी निगाह ने रोका तो डर लगा