रात हम ने जुगनुओं की सब दुकानें बेच दीं
सुब्ह को नीलाम करने के लिए कुछ घर भी थे
Jaun Eliya
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अंधेरे बंद कमरों में पड़े थे
फ़ज़ा में कर्ब का एहसास घोलती हुई रात
बे-तअल्लुक़ रूह का जब जिस्म से रिश्ता हुआ
कोई दस्तक न कोई आहट थी
ऐसे भी कुछ लम्हे यारो आएँगे
ख़्वाहिशों की आँच में तपते बदन की लज़्ज़तें हैं
चाहता है दिल किसी से राज़ की बातें करे
आस्तीनों में छुपा कर साँप भी लाए थे लोग
पेश-ए-मंज़र जो तमाशे थे पस-ए-मंज़र भी थे
एहसास-ए-बे-तलब का ही इल्ज़ाम दो हमें
नीम के पत्तों का ज़ख़्मों को धुआँ दे दीजिए