नीम के पत्तों का ज़ख़्मों को धुआँ दे दीजिए
नीम के पत्तों का ज़ख़्मों को धुआँ दे दीजिए
फिर मिरी आँखों को पहरे-दारियाँ दे दीजिए
हो सके तो ये नवाज़िश हम फ़क़ीरों पर करें
बुझते रंगों का हमें ये आसमाँ दे दीजिए
शब-परस्तों को भी तस्कीन-ए-अना मिल जाएगी
उन का हक़ है उन को शब-बेदारियाँ दे दीजिए
शाख़ पर काँटों को पैराहन बदलने के लिए
मौसमों को शबनमी बे-सम्तियाँ दे दीजिए
बे-हिसी का ख़ुश्क सा सहरा है आँखों में मिरी
धूल-ए-मंज़र से तो कुछ तुग़्यानीयाँ दे दीजिए
धुँदलके तो नौहा-ख़्वानी में बहुत मसरूफ़ हैं
रात ज़ख़्मी है उसे बैसाखियाँ दे दीजिए
आरिज़ी मौसम को भी एहसास-ए-महरूमी न हो
घर के सन्नाटों को एहसास-ए-ज़ियाँ दे दीजिए
धूप में थोड़ी सी गुंजाइश निकल आए तो 'रिंद'
एक मुट्ठी छाँव का ही साएबाँ दे दीजिए
(389) Peoples Rate This