वो नशा है कि ज़बाँ अक़्ल से करती है फ़रेब
तू मिरी बात के मफ़्हूम पे जाता है कहाँ
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तुम्हें आँसू बहाने को भी मिल जाएँ कई कंधे
मकीन-ए-दिल को ख़ानुमा-ख़राबियों से इश्क़ था
आँसुओं में मिरे काँधे को डुबोने वाले
वो नशा है के ज़बाँ अक़्ल से करती है फ़रेब
वो बार-ए-फ़र्ज़-ए-तकल्लुफ मुझी को धोना पड़ा
तमाम होश ज़ब्त इल्म मस्लहत के बा'द भी
आँसुओं से मिरे काँधे को डुबोने वाले
ये जिस्म तंग है सीने में भी लहु कम है