बस एक ध्यान की मैं उँगली थाम रखी है
कि भीड़ में कहीं ख़ुद से जुदा न हो जाऊँ
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नैरंगी-ए-ख़याल पे हैरत नहीं हुई
इतना बे-आसरा नहीं हूँ मैं
मेरी फ़ितरत ही में शामिल है मोहब्बत करना
यूँ नहीं वो नज़र नहीं आता
कोई नज़र न पड़ सके मुझ हाल-मस्त पर
ब-ज़ोम-ए-ख़ुद कहीं ख़ुद से वरा न हो जाऊँ
सौदा-ए-इश्क़ यूँ भी उतरना तो है नहीं
पूछा था मैं ने जब उसे क्या मुझ से इश्क़ है?
उम्र-भर जुस्तुजू रहेगी क्या
चश्म-ए-ख़ुश-आब की तमसील नहीं हो सकती
'साहिर' ये मेरा दीदा-ए-गिर्यां है और मैं
वक़्त अच्छा ज़रूर आता है