'साहिर' ये मेरा दीदा-ए-गिर्यां है और मैं
सहरा में कोई दूसरा झरना तो है नहीं
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चश्म-ए-ख़ुश-आब की तमसील नहीं हो सकती
उम्र-भर जुस्तुजू रहेगी क्या
यूँ नहीं वो नज़र नहीं आता
अद्ल को भी मीज़ान में रखना पड़ता है
इतना बे-आसरा नहीं हूँ मैं
बस एक ध्यान की मैं उँगली थाम रखी है
कोई नज़र न पड़ सके मुझ हाल-मस्त पर
ब-ज़ोम-ए-ख़ुद कहीं ख़ुद से वरा न हो जाऊँ
नैरंगी-ए-ख़याल पे हैरत नहीं हुई
पूछा था मैं ने जब उसे क्या मुझ से इश्क़ है?