कुंदनी रंग का मैं कुश्ता हूँ
क्यूँ न हो मेरी ज़ाफ़रानी ख़ाक
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फट जाते हैं ज़ख़्म-ए-दिल-ए-बेताब के अंगूर
जब उस ने मिरा ख़त न छुआ हाथ से अपने
ज़ीस्त ने मुर्दा बना रक्खा था मुझ को हिज्र में
किसी की ज़ुल्फ़ के सौदे में रात की है बसर
ग़ुंचे को है तिरे दहन की हिर्स
बहार आई कर ऐ बाग़बाँ गुलाब क़लम
सुना है अर्श-ए-इलाही इसी को कहते हैं
जाता है कौन आप से जल्लाद की तरफ़
न तो मैं हूर का मफ़्तूँ न परी का आशिक़
तिरे अबरू पे बल आया तो होता
आए हैं बादा-नोश बड़ी आन-बान पर