फट जाते हैं ज़ख़्म-ए-दिल-ए-बेताब के अंगूर
साक़ी तिरे हाथों से जो साग़र नहीं मिलता
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कौन कहता है तुम अदा न करो
कुंदनी रंग का मैं कुश्ता हूँ
आए हैं बादा-नोश बड़ी आन-बान पर
न तो मैं हूर का मफ़्तूँ न परी का आशिक़
है ख़ाक-बसर सबा मिरे बा'द
जब उस ने मिरा ख़त न छुआ हाथ से अपने
ग़ुंचे को है तिरे दहन की हिर्स
ज़ीस्त ने मुर्दा बना रक्खा था मुझ को हिज्र में
तिरे अबरू पे बल आया तो होता
जाता है कौन आप से जल्लाद की तरफ़