जब उस ने मिरा ख़त न छुआ हाथ से अपने
क़ासिद ने भी चिपका दिया दीवार से काग़ज़
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सुना है अर्श-ए-इलाही इसी को कहते हैं
शब-ए-वस्ल आज वो ताकीद करते हैं मोहब्बत से
किसी की ज़ुल्फ़ के सौदे में रात की है बसर
न तो मैं हूर का मफ़्तूँ न परी का आशिक़
नाख़ुन का रंग सीना-ख़राशी से ये हुआ
है ख़ाक-बसर सबा मिरे बा'द
कुंदनी रंग का मैं कुश्ता हूँ
आए हैं बादा-नोश बड़ी आन-बान पर
बहार आई कर ऐ बाग़बाँ गुलाब क़लम
फट जाते हैं ज़ख़्म-ए-दिल-ए-बेताब के अंगूर