न हो रिहाई क़फ़स से अगर नहीं होती
निगाह-ए-शौक़ तो बे-बाल-ओ-पर नहीं होती
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कौन से थे वो तुम्हारे अहद जो टूटे न थे
सज्दे तिरे कहने से मैं कर लूँ भी तो क्या हो
साँस उन के मरीज़-ए-हसरत की रुक रुक के चलती जाती है
मूसा समझे थे अरमाँ निकल जाएगा
करते भी क्या हुज़ूर न जब अपने घर मिले
अगर आ जाए पहलू में 'क़मर' वो माह-ए-कामिल भी
ब-जुज़ तुम्हारे किसी से कोई सवाल नहीं
शैख़ आख़िर ये सुराही है कोई ख़ुम तो नहीं
ऐसे में वो हों बाग़ हो साक़ी हो ऐ 'क़मर'
'क़मर' ज़रा भी नहीं तुम को ख़ौफ़-ए-रुस्वाई
सुकूँ-पसंद जो दीवानगी मिरी होती
अब तो मुँह से बोल मुझ को देख दिन भर हो गया