मुझे मेरे मिटने का ग़म है तो ये है
तुम्हें बेवफ़ा कह रहा है ज़माना
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नज़'अ की और भी तकलीफ़ बढ़ा दी तुम ने
ऐसे में वो हों बाग़ हो साक़ी हो ऐ 'क़मर'
अभी बाक़ी हैं पत्तों पर जले तिनकों की तहरीरें
सुना है ग़ैर की महफ़िल में तुम न जाओगे
देखिए हो गई बदनाम मसीहाई भी
यूँ तुम्हारे ना-तवान-ए-शौक़ मंज़िल भर चले
वो चार चाँद फ़लक को लगा चला हूँ 'क़मर'
अब आगे इस में तुम्हारा भी नाम आएगा
हुस्न कब इश्क़ का ममनून-ए-वफ़ा होता है
जल्वा-गर बज़्म-ए-हसीनाँ में हैं वो इस शान से
जिगर का दाग़ छुपाओ 'क़मर' ख़ुदा के लिए
शैख़ आख़िर ये सुराही है कोई ख़ुम तो नहीं