वो चार चाँद फ़लक को लगा चला हूँ 'क़मर'
कि मेरे बा'द सितारे कहेंगे अफ़्साने
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साँस उन के मरीज़-ए-हसरत की रुक रुक के चलती जाती है
फ़लक ना-मेहरबाँ है मिल रहे हैं मेहरबाँ फिर भी
नज़'अ की और भी तकलीफ़ बढ़ा दी तुम ने
बोझ इतना भर गई थी रूह-ए-सुबुक निकल के
अब तो मुँह से बोल मुझ को देख दिन भर हो गया
दबा के क़ब्र में सब चल दिए दुआ न सलाम
बाग़-ए-आलम में रहे शादी-ओ-मातम की तरह
कब मेरा नशेमन अहल-ए-चमन गुलशन में गवारा करते हैं
दोनों हैं उन के हिज्र का हासिल लिए हुए
'क़मर' ज़रा भी नहीं तुम को ख़ौफ़-ए-रुस्वाई
रुस्वा करेगी देख के दुनिया मुझे 'क़मर'
ख़ून होता है सहर तक मिरे अरमानों का