फ़लक ना-मेहरबाँ है मिल रहे हैं मेहरबाँ फिर भी
बहुत कुछ मिट चुके बाक़ी हैं उल्फ़त के निशाँ फिर भी
मोहब्बत देखिए ठुकरा रहे हैं कारवाँ वाले
मगर पीछे चली आती है गर्द-ए-कारवाँ फिर भी
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हुक्म-ए-सय्याद है ता-ख़त्म-ए-तमाशा-ए-बहार
पूछो न अरक़ रुख़्सारों से रंगीनी-ए-हुस्न को बढ़ने दो
यूँ तुम्हारे ना-तवान-ए-शौक़ मंज़िल भर चले
हर वक़्त महवियत है यही सोचता हूँ मैं
हालात-ए-गुलिस्ताँ पे बहुत हम ने नज़र की
हटी ज़ुल्फ़ उन के चेहरे से मगर आहिस्ता आहिस्ता
ख़त्म शब क़िस्सा-ए-मुख़्तसर न हुई
ज़ब्त करता हूँ तो घुटता है क़फ़स में मिरा दम
रुस्वा करेगी देख के दुनिया मुझे 'क़मर'
सज्दे तिरे कहने से मैं कर लूँ भी तो क्या हो
कब मेरा नशेमन अहल-ए-चमन गुलशन में गवारा करते हैं