पूछो न अरक़ रुख़्सारों से रंगीनी-ए-हुस्न को बढ़ने दो
सुनते हैं कि शबनम के क़तरे फूलों को निखारा करते हैं
Wasi Shah
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'क़मर' किसी से भी दिल का इलाज हो न सका
देखिए हो गई बदनाम मसीहाई भी
अब मुझे गुलशन से क्या जब ज़ेर-ए-दाम आ ही गया
सुर्ख़ियाँ क्यूँ ढूँढ कर लाऊँ फ़साने के लिए
बढ़ा बढ़ा के जफ़ाएँ झुका ही दोगे कमर
सुना है ग़ैर की महफ़िल में तुम न जाओगे
शैख़ आख़िर ये सुराही है कोई ख़ुम तो नहीं
मूसा समझे थे अरमाँ निकल जाएगा
न हो रिहाई क़फ़स से अगर नहीं होती
मैं उन सब में इक इम्तियाज़ी निशाँ हूँ फ़लक पर नुमायाँ हैं जितने सितारे
मुझे बाग़बाँ से गिला ये है कि चमन से बे-ख़बरी रही
इस में कोई फ़रेब तो ऐ आसमाँ नहीं