मैं उन सब में इक इम्तियाज़ी निशाँ हूँ फ़लक पर नुमायाँ हैं जितने सितारे
'क़मर' बज़्म-ए-अंजुम की मुझ को मयस्सर सदारत नहीं है तो फिर और क्या है
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यूँ तुम्हारे ना-तवान-ए-शौक़ मंज़िल भर चले
मूसा समझे थे अरमाँ निकल जाएगा
नज़'अ की और भी तकलीफ़ बढ़ा दी तुम ने
शब को मिरा जनाज़ा जाएगा यूँ निकल कर
अब आगे इस में तुम्हारा भी नाम आएगा
मुझे मेरे मिटने का ग़म है तो ये है
बारिश में अहद तोड़ के गर मय-कशी हुई
ज़ब्त करता हूँ तो घुटता है क़फ़स में मिरा दम
रोएँगे देख कर सब बिस्तर की हर शिकन को
सुरमे का तिल बना के रुख़-ए-ला-जवाब में
फ़लक ना-मेहरबाँ है मिल रहे हैं मेहरबाँ फिर भी
सुर्ख़ियाँ क्यूँ ढूँढ कर लाऊँ फ़साने के लिए