मुद्दतें हुईं अब तो जल के आशियाँ अपना
आज तक ये आलम है रौशनी से डरता हूँ
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ज़रा रूठ जाने पे इतनी ख़ुशामद
अब तो मुँह से बोल मुझ को देख दिन भर हो गया
जल्वा-गर बज़्म-ए-हसीनाँ में हैं वो इस शान से
अभी बाक़ी हैं पत्तों पर जले तिनकों की तहरीरें
फ़लक ना-मेहरबाँ है मिल रहे हैं मेहरबाँ फिर भी
लहद और हश्र में ये फ़र्क़ कम पाए नहीं जाते
बारिश में अहद तोड़ के गर मय-कशी हुई
'क़मर' ज़रा भी नहीं तुम को ख़ौफ़-ए-रुस्वाई
हालात-ए-गुलिस्ताँ पे बहुत हम ने नज़र की
आह को समझे हो क्या दिल से अगर हो जाएगी
अबरू तो दिखा दीजिए शमशीर से पहले