अभी बाक़ी हैं पत्तों पर जले तिनकों की तहरीरें
ये वो तारीख़ है बिजली गिरी थी जब गुलिस्ताँ पर
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साँस उन के मरीज़-ए-हसरत की रुक रुक के चलती जाती है
छोड़ कर घर-बार अपना हसरत-ए-दीदार में
हुस्न कब इश्क़ का ममनून-ए-वफ़ा होता है
सुना है ग़ैर की महफ़िल में तुम न जाओगे
बारिश में अहद तोड़ के गर मय-कशी हुई
ज़रा रूठ जाने पे इतनी ख़ुशामद
शैख़ आख़िर ये सुराही है कोई ख़ुम तो नहीं
बला से हो शाम की सियाही कहीं तो मंज़िल मिरी मिलेगी
तुझे क्या नासेहा अहबाब ख़ुद समझाए जाते हैं
अबरू तो दिखा दीजिए शमशीर से पहले
दोनों हैं उन के हिज्र का हासिल लिए हुए
'क़मर' अपने दाग़-ए-दिल की वो कहानी मैं ने छेड़ी