'क़मर' अपने दाग़-ए-दिल की वो कहानी मैं ने छेड़ी
कि सुना किए सितारे मिरा रात भर फ़साना
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बारिश में अहद तोड़ के गर मय-कशी हुई
कभी कहा न किसी से तिरे फ़साने को
शैख़ आख़िर ये सुराही है कोई ख़ुम तो नहीं
न हो रिहाई क़फ़स से अगर नहीं होती
ख़त्म शब क़िस्सा-ए-मुख़्तसर न हुई
पूछो न अरक़ रुख़्सारों से रंगीनी-ए-हुस्न को बढ़ने दो
हटी ज़ुल्फ़ उन के चेहरे से मगर आहिस्ता आहिस्ता
उन के जाते ही ये वहशत का असर देखा किए
मिरा ख़ामोश रह कर भी उन्हें सब कुछ सुना देना
सज्दे तिरे कहने से मैं कर लूँ भी तो क्या हो
अभी बाक़ी हैं पत्तों पर जले तिनकों की तहरीरें