'क़मर' अफ़्शाँ चुनी है रुख़ पे उस ने इस सलीक़े से
सितारे आसमाँ से देखने को आए जाते हैं
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नज़'अ की और भी तकलीफ़ बढ़ा दी तुम ने
हर वक़्त महवियत है यही सोचता हूँ मैं
शब को मिरा जनाज़ा जाएगा यूँ निकल कर
कभी कहा न किसी से तिरे फ़साने को
सोज़-ए-ग़म-ए-फ़िराक़ से दिल को बचाए कौन
उन के जाते ही ये वहशत का असर देखा किए
वो आग़ाज़-ए-मोहब्बत का ज़माना
हटी ज़ुल्फ़ उन के चेहरे से मगर आहिस्ता आहिस्ता
अगर आ जाए पहलू में 'क़मर' वो माह-ए-कामिल भी
तेरे क़ुर्बान 'क़मर' मुँह सर-ए-गुलज़ार न खोल
बला से हो शाम की सियाही कहीं तो मंज़िल मिरी मिलेगी
नशेमन ख़ाक होने से वो सदमा दिल को पहुँचा है