तेरे क़ुर्बान 'क़मर' मुँह सर-ए-गुलज़ार न खोल
सदक़े उस चाँद सी सूरत पे न हो जाए बहार
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छोड़ कर घर-बार अपना हसरत-ए-दीदार में
'क़मर' अफ़्शाँ चुनी है रुख़ पे उस ने इस सलीक़े से
कब मेरा नशेमन अहल-ए-चमन गुलशन में गवारा करते हैं
मुझे बाग़बाँ से गिला ये है कि चमन से बे-ख़बरी रही
बारिश में अहद तोड़ के गर मय-कशी हुई
अब मुझे गुलशन से क्या जब ज़ेर-ए-दाम आ ही गया
हर वक़्त महवियत है यही सोचता हूँ मैं
शैख़ आख़िर ये सुराही है कोई ख़ुम तो नहीं
बला से हो शाम की सियाही कहीं तो मंज़िल मिरी मिलेगी
रोएँगे देख कर सब बिस्तर की हर शिकन को
सुना है ग़ैर की महफ़िल में तुम न जाओगे
अभी बाक़ी हैं पत्तों पर जले तिनकों की तहरीरें