हर वक़्त महवियत है यही सोचता हूँ मैं
क्यूँ बर्क़ ने जलाया मिरा आशियाँ न पूछ
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छोड़ कर घर-बार अपना हसरत-ए-दीदार में
बढ़ा बढ़ा के जफ़ाएँ झुका ही दोगे कमर
आएँ हैं वो मज़ार पे घूँघट उतार के
अब नज़अ का आलम है मुझ पर तुम अपनी मोहब्बत वापस लो
साँस उन के मरीज़-ए-हसरत की रुक रुक के चलती जाती है
कब मेरा नशेमन अहल-ए-चमन गुलशन में गवारा करते हैं
अब तो मुँह से बोल मुझ को देख दिन भर हो गया
करते भी क्या हुज़ूर न जब अपने घर मिले
ज़ब्त करता हूँ तो घुटता है क़फ़स में मिरा दम
पूछो न अरक़ रुख़्सारों से रंगीनी-ए-हुस्न को बढ़ने दो
दबा के क़ब्र में सब चल दिए दुआ न सलाम
वो चार चाँद फ़लक को लगा चला हूँ 'क़मर'