आएँ हैं वो मज़ार पे घूँघट उतार के
मुझ से नसीब अच्छे है मेरे मज़ार के
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फ़लक ना-मेहरबाँ है मिल रहे हैं मेहरबाँ फिर भी
तेरे क़ुर्बान 'क़मर' मुँह सर-ए-गुलज़ार न खोल
अबरू तो दिखा दीजिए शमशीर से पहले
वो चार चाँद फ़लक को लगा चला हूँ 'क़मर'
हुस्न कब इश्क़ का ममनून-ए-वफ़ा होता है
मुझे बाग़बाँ से गिला ये है कि चमन से बे-ख़बरी रही
अब आगे इस में तुम्हारा भी नाम आएगा
हटी ज़ुल्फ़ उन के चेहरे से मगर आहिस्ता आहिस्ता
'क़मर' ज़रा भी नहीं तुम को ख़ौफ़-ए-रुस्वाई
इस लिए आरज़ू छुपाई है
उन के जाते ही ये वहशत का असर देखा किए
नशेमन ख़ाक होने से वो सदमा दिल को पहुँचा है