'क़मर' ज़रा भी नहीं तुम को ख़ौफ़-ए-रुस्वाई
चले हो चाँदनी शब में उन्हें बुलाने को
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सुना है ग़ैर की महफ़िल में तुम न जाओगे
तुझे क्या नासेहा अहबाब ख़ुद समझाए जाते हैं
जल्वा-गर बज़्म-ए-हसीनाँ में हैं वो इस शान से
रुस्वा करेगी देख के दुनिया मुझे 'क़मर'
मुझे बाग़बाँ से गिला ये है कि चमन से बे-ख़बरी रही
वो चार चाँद फ़लक को लगा चला हूँ 'क़मर'
'क़मर' अफ़्शाँ चुनी है रुख़ पे उस ने इस सलीक़े से
अब आगे इस में तुम्हारा भी नाम आएगा
शैख़ आख़िर ये सुराही है कोई ख़ुम तो नहीं
इस लिए आरज़ू छुपाई है
करेंगे शिकवा-ए-जौर-ओ-जफ़ा दिल खोल कर अपना
तेरे क़ुर्बान 'क़मर' मुँह सर-ए-गुलज़ार न खोल