'क़मर' किसी से भी दिल का इलाज हो न सका
हम अपना दाग़ दिखाते रहे ज़माने को
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शब को मिरा जनाज़ा जाएगा यूँ निकल कर
करते भी क्या हुज़ूर न जब अपने घर मिले
अब मुझे गुलशन से क्या जब ज़ेर-ए-दाम आ ही गया
बढ़ा बढ़ा के जफ़ाएँ झुका ही दोगे कमर
रौशन है मेरा नाम बड़ा नामवर हूँ मैं
हुस्न कब इश्क़ का ममनून-ए-वफ़ा होता है
आह को समझे हो क्या दिल से अगर हो जाएगी
इस में कोई फ़रेब तो ऐ आसमाँ नहीं
न हो रिहाई क़फ़स से अगर नहीं होती
करेंगे शिकवा-ए-जौर-ओ-जफ़ा दिल खोल कर अपना
दिल अगर होता तो मिल जाता निशान-ए-आरज़ू
दबा के क़ब्र में सब चल दिए दुआ न सलाम