बढ़ा बढ़ा के जफ़ाएँ झुका ही दोगे कमर
घटा घटा के 'क़मर' को हिलाल कर दोगे
Javed Akhtar
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अब नज़अ का आलम है मुझ पर तुम अपनी मोहब्बत वापस लो
ब-जुज़ तुम्हारे किसी से कोई सवाल नहीं
मुझे मेरे मिटने का ग़म है तो ये है
तुझे क्या नासेहा अहबाब ख़ुद समझाए जाते हैं
शब को मिरा जनाज़ा जाएगा यूँ निकल कर
हालात-ए-गुलिस्ताँ पे बहुत हम ने नज़र की
हुस्न कब इश्क़ का ममनून-ए-वफ़ा होता है
जल्वा-गर बज़्म-ए-हसीनाँ में हैं वो इस शान से
अगर आ जाए पहलू में 'क़मर' वो माह-ए-कामिल भी
मैं उन सब में इक इम्तियाज़ी निशाँ हूँ फ़लक पर नुमायाँ हैं जितने सितारे
सुकूँ-पसंद जो दीवानगी मिरी होती
नशेमन ख़ाक होने से वो सदमा दिल को पहुँचा है