हालात-ए-गुलिस्ताँ पे बहुत हम ने नज़र की
अपनों के सिवा बात किसी से न की डर की
सय्याद को देता है पता नग़्मा-ए-बुलबुल
गुलचीं को बुला लेती है ख़ुशबू गुल-ए-तर की
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वो चार चाँद फ़लक को लगा चला हूँ 'क़मर'
न हो रिहाई क़फ़स से अगर नहीं होती
'क़मर' अफ़्शाँ चुनी है रुख़ पे उस ने इस सलीक़े से
दबा के क़ब्र में सब चल दिए दुआ न सलाम
बोझ इतना भर गई थी रूह-ए-सुबुक निकल के
देखते हैं रक़्स में दिन रात पैमाने को हम
मुझे मेरे मिटने का ग़म है तो ये है
ज़ब्त करता हूँ तो घुटता है क़फ़स में मिरा दम
सुरमे का तिल बना के रुख़-ए-ला-जवाब में
ब-जुज़ तुम्हारे किसी से कोई सवाल नहीं
नज़'अ की और भी तकलीफ़ बढ़ा दी तुम ने
'क़मर' अपने दाग़-ए-दिल की वो कहानी मैं ने छेड़ी