बोझ इतना भर गई थी रूह-ए-सुबुक निकल के
इक इक का मुंतज़िर था दो-चार गाम चल के
हालाँकि घर से तुर्बत कुछ दूर थी न अपनी
पहुँचा मिरा जनाज़ा काँधे बदल बदल के
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शुक्रिया ऐ क़ब्र तक पहुँचाने वालो शुक्रिया
शब को मिरा जनाज़ा जाएगा यूँ निकल कर
हुस्न कब इश्क़ का ममनून-ए-वफ़ा होता है
'क़मर' ज़रा भी नहीं तुम को ख़ौफ़-ए-रुस्वाई
इस में कोई फ़रेब तो ऐ आसमाँ नहीं
सज्दे तिरे कहने से मैं कर लूँ भी तो क्या हो
मिरा ख़ामोश रह कर भी उन्हें सब कुछ सुना देना
रुस्वा करेगी देख के दुनिया मुझे 'क़मर'
देखिए हो गई बदनाम मसीहाई भी
दबा के क़ब्र में सब चल दिए दुआ न सलाम
अभी बाक़ी हैं पत्तों पर जले तिनकों की तहरीरें
रोएँगे देख कर सब बिस्तर की हर शिकन को