ज़रा रूठ जाने पे इतनी ख़ुशामद
'क़मर' तुम बिगाड़ोगे आदत किसी की
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रोएँगे देख कर सब बिस्तर की हर शिकन को
नज़'अ की और भी तकलीफ़ बढ़ा दी तुम ने
ऐसे में वो हों बाग़ हो साक़ी हो ऐ 'क़मर'
सुरमे का तिल बना के रुख़-ए-ला-जवाब में
मैं उन सब में इक इम्तियाज़ी निशाँ हूँ फ़लक पर नुमायाँ हैं जितने सितारे
अबरू तो दिखा दीजिए शमशीर से पहले
मिरा ख़ामोश रह कर भी उन्हें सब कुछ सुना देना
रौशन है मेरा नाम बड़ा नामवर हूँ मैं
आह को समझे हो क्या दिल से अगर हो जाएगी
ये रस्ते में किस से मुलाक़ात कर ली
सुना है ग़ैर की महफ़िल में तुम न जाओगे
उन के जाते ही ये वहशत का असर देखा किए