रोएँगे देख कर सब बिस्तर की हर शिकन को
वो हाल लिख चला हूँ करवट बदल बदल कर
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Faiz Ahmad Faiz
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बोझ इतना भर गई थी रूह-ए-सुबुक निकल के
रौशन है मेरा नाम बड़ा नामवर हूँ मैं
सज्दे तिरे कहने से मैं कर लूँ भी तो क्या हो
मुद्दतें हुईं अब तो जल के आशियाँ अपना
ये रस्ते में किस से मुलाक़ात कर ली
अब आगे इस में तुम्हारा भी नाम आएगा
ज़रा रूठ जाने पे इतनी ख़ुशामद
इस लिए आरज़ू छुपाई है
वो चार चाँद फ़लक को लगा चला हूँ 'क़मर'
ऐसे में वो हों बाग़ हो साक़ी हो ऐ 'क़मर'
लहद और हश्र में ये फ़र्क़ कम पाए नहीं जाते